एक गांव और 4 दावेदार, लोग बोले-चुनाव का बहिष्कार करेंगे:न सड़क, न बिजली, न पानी; नेता सिर्फ वोट लेने आते हैं

भारत-नेपाल के बॉर्डर पर बसा भिखनाठोरी गांव। आजादी से आज तक यहां बिजली नहीं पहुंच सकी। सड़क कटकर कच्ची हो गई और गांव की पहचान वोटर कार्ड से लेकर आधार कार्ड तक ही सीमित है। इसे लेकर वन विभाग कहता है कि पूरे गांव की जमीन हमारी है। रेलवे का भी यही दावा है। रामनगर का राज परिवार इसे अपनी जमीन बताता है। वहीं गांव के लोगों का कहना है कि ये उनकी जमीन है। पश्चिमी चंपारण जिले में 179 घरों वाले इस गांव का विकास चार दावेदारों के बीच अटका है। गांव भारत-नेपाल बॉर्डर पर बसा है। गांव की आबादी करीब 2 हजार है। ये फॉरेस्ट एरिया में है। लोगों का आरोप है कि इसी वजह से वन विभाग आए दिन जमीन खाली करने का नोटिस भेजता है और बुलडोजर चलाने की धमकी देता है। गांव वाले बताते हैं कि कागजों में ये भारत का हिस्सा है, लेकिन हकीकत में इसे अब भी पहचान की दरकार है। यहां न बिजली है, न सड़क और न लोगों के पास मकानों का मालिकाना हक। बिजली के लिए मकानों पर लगी सोलर प्लेट ही सहारा है। धूप निकले तभी घरों में बल्ब जलता है वरना रात अंधेरे में कटती है। गांव वालों का कहना है कि अगर हमें हक न मिला तो चुनाव का बहिष्कार करेंगे। गांव में किस तरह की परेशानियां हैं? गांव के जमीन पर अलग-अलग विभाग क्यों अपना दावा कर रहे हैं? गांव वालों को आज तक बिजली और सड़क क्यों नहीं मिल सका? ये जानने के लिए हम भिखनाठोरा गांव पहुंचे। गांव की हकीकत पढ़िए इस रिपोर्ट में… आजादी के पहले बसा गांव, जमीन का मालिकाना हक तक नहीं
हमें गांव तक पहुंचने के लिए करीब 7 किलोमीटर तक जंगल से होते हुए कच्ची सड़क से गुजरना पड़ा। PWD की पुरानी सड़क उखड़ी पड़ी थी। गांव में हमें नल-जल की पाइपलाइन दिखी लेकिन बिजली न होने से मोटर नहीं चलता। इसलिए पानी की सुविधा भी नहीं मिल रही है। गांव के लोग नदी से पानी से बर्तन धोते मिले। गांव में स्कूल की बिल्डिंग खड़ी है लेकिन छत नहीं डल सकी। थोड़ा आगे बढ़े तो कुछ गांव वाले मिले। ग्राम वनाधिकार समिति के अध्यक्ष पूर्णा प्रसाद बताते हैं, ‘गांव रामनगर के राजा ने बसाया था। नेपाल से आने वाले बौद्ध भिक्षु यहां ठहरते थे, क्योंकि आगे घना जंगल है। इसीलिए गांव का नाम भिखनाठोरी पड़ गया। 1865 में जॉर्ज पंचम भी गांव आए थे। उन्हीं के लिए रेल लाई गई।‘ वे कहते हैं, ‘हम आजादी के पहले से बसे हैं। 2013 में नीतीश कुमार आए और वनाधिकार समिति बनी। 2006 के वन अधिकार नियम के तहत तीन पीढ़ी से बसे लोगों को बसावट का पर्चा मिलना था। हमने 179 दावा पत्र अनुमंडल पदाधिकारी और बीडीओ को दिया। तत्कालीन DM श्रीधर सिंह राजी भी थे, लेकिन वन विभाग ने सब अटका दिया।‘ हमारे गांव का सर्वे छूटा, आज तक गुलाम जैसी जिंदगी
गांव में रहने वाले सुनेश सहनी कहते हैं, ‘हम पर अवैध बसावट के आरोप लगे हैं, लेकिन ये जमीन हमारी है। पूर्वजों के समय से बसे हैं। सरकार का नियम है कि अगर 12 साल से अवैध या गैरमजरूआ जमीन पर बसे हैं तो बिना अनुमति सरकार दे दे लेकिन वन विभाग जबरदस्ती दावा ठोक रहा। कहता है कि जंगल में बसे हो, खाली करो वरना तोड़ देंगे लेकिन उनके पास हमें हटाने के कागज नहीं हैं। अगर विभाग गलत नीयत रखेगा तो हम अनशन और आंदोलन करेंगे।‘ ‘गांव के पास भारत सरकार की सारी सुविधाएं हैं। 2017 की बाढ़ में कटाव हुआ तो सरकार ने 40 करोड़ खर्च कर बांध बनवाया। अगर ये गांव न होता तो क्यों बनवाता?‘ नेता लिखित शिकायत पर आश्वासन देते हैं लेकिन कार्रवाई नहीं करते। 1947 में आजादी के सर्वे में गांव जंगल सर्वे से छूट गया। हम आज भी गुलाम जैसे जी रहे। सरकार से मांग है कि वन विभाग से निदान कराएं और हमें बसावट का पर्चा दें। ‘सरकार ने बिजली पास की लेकिन वन विभाग ने उसे पास के भतुजला गांव में डायवर्ट कर दिया। भतुजला को पर्चा मिला लेकिन हमें नहीं। PWD ने अंडरग्राउंड बिजली रोकी, विरोध किया गया तो 22 लोगों पर केस हो गया। सड़क न होने से अस्पताल जाना मुश्किल। नेपाल बॉर्डर दो कदम पर है, वहां विकास है लेकिन यहां नहीं।‘ नेता पहले बसावट का पर्चा दें, तभी वोट करेंगे
मोतीलाल सरकार से मांग करते हुए कहते हैं, ’हमें बसावट का पर्चा मिले। 2006 में भारत सरकार ने कानून बनाया कि वनवासियों और परंपरागत लोगों को बसावट का पर्चा देंगे, वो चाहे भूमिहीन हो या गैर-भूमिहीन। अगर हटाना है तो विस्थापित करें और प्रति परिवार पैसा दें। हम उसी कानून की बात करते हैं।’ इस बार के चुनाव में इसे मुद्दा बताते हुए वे कहते हैं, ’नेता वोट मांगने आएंगे तो कहेंगे, बसावट का पर्चा दीजिए वरना वोट नहीं करेंगे। आप सालों से सत्ता में हैं, विधायक बने लेकिन कोई काम नहीं किया। यहां बाकी सरकारी सुविधाएं हैं- पोस्ट ऑफिस, स्कूल सब है लेकिन गांव की पहचान नहीं है।’ ’नेता सिर्फ वोट ले जाते हैं। सांसद-विधायक एक-दो बार आते हैं, वोट पड़ने के बाद फिर कोई नजर नहीं आता। हम गरीब, असहाय लोग उनके पीछे दौड़ते हैं। सड़क की दुर्दशा देखिए, पहले अच्छी थी। 2014-15 में टेंडर हुआ, डबल लाइन के लिए उखाड़ा लेकिन काम बंद कर दिया। अब सब अधर में है।’ जमीन के कागज, फिर भी वन विभाग परेशान कर रहा
भिखनाठोरी गांव के पूर्व मुखिया दयानंद सहनी कागज दिखाते हुए कहते हैं, ’मेरे पास 1966 की आईडी है। हमारे पूर्वज 100 साल से पहले से यहां बसे थे। ये राजा रामनगर की जमीन थी। आजादी से पहले सारी जनता राजा की जमीन पर बसी थी। यहां पत्थर का व्यवसाय होता था। आजादी के बाद भी बसावट बनी रही।’ ’अंग्रेजों के समय रेल आई। रेल ने जमीन ली, वन विभाग ने भी अधिग्रहण किया। वन विभाग ही अन्याय कर रहा है, रोड नहीं बनने दे रहा, बिजली नहीं आने दे रहा। पानी के लिए हाल में बिहार सरकार ने तीन बोरिंग लगाईं। PHE ने पहले भी कोशिश की। हमारे पास सब कुछ है, आईडी, राशन कार्ड, स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र, स्वास्थ्य केंद्र, टीकाकरण केंद्र और आशा कार्यकर्ता।’ ’राशन से लेकर सब सुविधाएं बिहार सरकार दे रही। जो काम रुका है, उसके पीछे वन विभाग की गलत नीयत है। स्कूल के छत की ढलाई को रोक दी गई। बच्चे कहां पढ़ने जाएंगे? क्या हमारे बच्चे पढ़ें लिखेंगे नहीं? विभाग झूठे मुकदमे करा रहा है। गोपनीय तरीके से आता है।’ ’एक बार रेंजर सुनील पाठक आए, बोले- सर्वे कराकर बसाएंगे लेकिन 20 से 50 लोगों को नोटिस जारी कर गए। नोटिस में कहा- हमारी जमीन पर बसे हो, जवाब दो। जब ग्रामीण जवाब देने गए तो धोखे में रखकर सहमति पत्र लिखवा लिया कि हम उनकी जमीन पर बसे हैं। वन एक्ट 1972 से पहले बसे गांव के पास 1966 का प्रूफ है क्योंकि तब कोई वन एक्ट नहीं था। विभाग फिर भी नहीं मान रहा।’ ’वन अधिकारी बुलडोजर चलाने की धमकी देते हैं। कहते है कि दो महीने में हट जाओ, वरना बुलडोजर चला देंगे। नोटिस पर मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। वकील रखे बिना एकतरफा बयान लेते हैं। जब पता चला तो हम विभाग के लोगों से मिले लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। नोटिस में लिखा है कि वकील जवाब देंगे।’ सांसद-विधायक वोट मांगने आते, कोई हक नहीं दिलाता
दयानंद आगे कहते हैं, ’2011 में मैं मुखिया बना, तब विकास भवन में DM के समक्ष 50 पंचायतों की बैठक हुई। भिखनाठोरी को प्राथमिकता दी गई।’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दावा पत्र का आदेश दिया। 2013 में नीतीश कुमार खुद भिखनाठोरी पहुंचे, 179 व्यक्तियों के दावा पत्र लिए। पेपर मेरे पास हैं। अंचल से नजरी नक्शा बनवाया। सब सबूत हैं, लेकिन वन विभाग जबरदस्ती परेशान करता है। ’सांसद, विधायक, मंत्री वोट मांगने आते हैं। सांत्वना देते हैं और गायब हो जाते हैं। इस बार हमारे अस्तित्व की लड़ाई ही हमारा मुद्दा है। इस बार वोट भी उसी को देंगे जो हमारी पहचान दिलाएगा। हमने जिला पदाधिकारी, अनुमंडल, प्रखंड हर जगह आवेदन दिया, कोई नहीं सुन रहा। हम जैसे वोट बहिष्कार की बात करते हैं तो CO-BDO सब पहुंच जाते हैं और भरोसा दिलाने लगते हैं। चुनाव के बाद अधिकारी भी काम नहीं आते हैं।’ ’अगर हमारी समस्या न सुलझी तो आंदोलन करेंगे। बच्चा-बच्चा बैठेगा, सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। हम आगामी विधानसभा में वोट बहिष्कार करेंगे। बिहार सरकार ने इतने दिनों से अंधेरा में रखा। हम JDU-BJP के समर्थक हैं, लेकिन अब विरोध करेंगे। हमें न्याय दो, वरना वोट लेने का अधिकार नहीं।’ सरकारी योजनाएं पहुंची लेकिन बिजली-सड़क नहीं
गांव में रहने वाली पूनम देवी कहती हैं, ‘परेशानी ये है कि हमारे पूर्वज आजादी से पहले से यहां बसे हैं। उस समय वन विभाग का अस्तित्व नहीं था। आज जीविका समूह हैं, 17 ग्राम संगठन हैं। अंग्रेजों का गेस्ट हाउस है, पोस्ट ऑफिस है, स्कूल भी है लेकिन छत टूट गई है अब वन विभाग डालने नहीं दे रहा।‘ ‘स्वस्थ भारत अभियान चल रहा है। सारी सरकारी सुविधाएं हैं, लेकिन वन विभाग हमें उजाड़ना चाहता है। वृद्धावस्था पेंशन मिलती है, लेकिन बिजली और सड़क नहीं है। रेलवे लाइन बंद कर दी। पीएम आवास में किसी को घर नहीं मिला क्योंकि वन विभाग बनने नहीं देता है। ‘ ‘नल-जल योजना है, लेकिन बिजली न होने से ठप है। वन विभाग जबरदस्ती नोटिस दे रहा। 20 लोगों को खाली करने का नोटिस मिला, 10 सितंबर को कोर्ट में हाजिर होने का आदेश मिली। रेलवे ने भी 2023 में अतिक्रमण हटाने का नोटिस दिया। 179 के करीब परिवार उजड़ने की कगार पर हैं। हमारे साथ अन्याय हो रहा है।‘ ये राजा या रेलवे की जमीन, वन विभाग नहीं मान रहा
गांव के बुजुर्ग मोतीलाल पासवान दस्तावेज दिखाते हुए कहते हैं, ‘मेरे पास 1865 का सबूत है। जब से यहां रेल चल रही है। 1800 में भारत-नेपाल समझौता हुआ, जिसमें हमारे नाले का पानी नेपाल को देने की बात तय हुई। सब कुछ होते हुए भी वन विभाग कहता है कि जमीन उसकी है। ये गांव कभी सोने की चिड़िया जैसा था लेकिन वन विभाग के कारण बर्बाद हो गया। चाहे युवा हो या बुजुर्ग यहां लगभग सभी पर केस चल रहा है।‘ वे DFO से हुई बात का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मैं साहब के पास गया। कहा- सर 59 नंबर और 62 नंबर प्लॉट की भी मैपिंग कर लीजिए। अगर फॉरेस्ट में है तो उजाड़ दीजिए, अगर नहीं तो ये राजा या रेलवे की जमीन है। वे बोले- हम कैसे मान लें? बताइए भला जियो-मैपिंग और जियो-टैगिंग हो चुकी है। उन्हें सैटेलाइट इमेज भी दिखाई, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं थे।’ वे आगे कहते हैं, ‘हमें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है, ताकि लोग यहां से चले जाएं और वन विभाग मनमानी कर सके। गांव के लोग डरे-सहमे हैं। फॉरेस्ट सिपाही देखते ही भाग जाते हैं। सब डरकर नेपाल भाग जाते हैं कि कहीं पकड़ न लिए जाएं।’ विधायक बोलीं- वन विभाग के चलते जमीन से जुड़ी योजनाएं अटकीं
गांव वालों की परेशानियों को लेकर हमने क्षेत्र की विधायक भागीरथी देवी से बात की। वे कहती हैं, ‘जो भी जमीन से जुड़ी योजनाएं है, जैसे- सड़क, मकान इन सभी का लाभ उन्हें नहीं मिल पाता है। क्योंकि गांव में वन विभाग अपनी जमीन होने का दावा करता है। बाकी सभी योजनाएं वहां पहुंच गई हैं।’ वन विभाग बोला- पूरी बस्ती अवैध नहीं, कुछ जमीन विवादित
हम बेतिया में वन विभाग के सह निदेशक नेसा मणि से मिले। उन्होंने बताया कि कुछ लोग बसे हुए हैं। दुकानें भी बनी हैं। संबंधित वन पदाधिकारी ने संगठन बनाकर अवैध बसावट पर नोटिस जारी किए, ताकि लोग अपना पक्ष रख सकें। नोटिस में कहा गया कि जमीन किसकी है, इसका जवाब दें। सुनवाई का मौका दिया गया। अगर जंगल में नया अतिक्रमण हो तो रोकते हैं, पुराने मामले में नोटिस देकर पक्ष सुनते हैं। यही मानक प्रक्रिया है। वे आगे कहते हैं, ‘पूरी बस्ती अवैध नहीं, कुछ विवादित जमीन है। विभाग के अनुसार, जमीन पहले वन की थी। सरकारी सुविधाएं जैसे आधार, पैन, वोटर आईडी बना है। लोग वोट देते हैं लेकिन तत्काल खाली कराने की कोई कार्रवाई नहीं हुई। नोटिस पक्ष रखने के लिए है। अगर लीगल हैं तो पेपर लेकर DFO या न्यायालय जाएं। सुनवाई के बाद फैसला होगा। अवैध अतिक्रमण पर नोटिस का जवाब देना जरूरी है वरना कार्रवाई हो सकती है।’
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