चंद दिनों पहले तक एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रही कांग्रेस-सपा के बीच संसद के मानसून सत्र में अभूतपूर्व जुगलबंदी देखने को मिल रही है। राहुल गांधी केंद्र सरकार पर आक्रामक हैं और अखिलेश यादव यूपी के मुद्दों को लेकर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों दल के नेता कंधे से कंधा मिलाकर सत्ता पक्ष को संदेश देते नजर आ रहे हैं। इसे दोनों दलों के भीतर हो रही गठबंधन विरोधी बहस को खत्म करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि यह गठबंधन कितना टिकाऊ है? इसका 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा? गठबंधन का विरोध करने वाले इमरान मसूद जैसे नेताओं की सियासत का क्या होगा? इस सियासी समीकरण पर पूरी रिपोर्ट… मानसून सत्र के दौरान संसद में सपा और कांग्रेस की एकजुटता ने सभी का ध्यान खींचा है। सत्र के पहले दिन 21 जुलाई को अखिलेश यादव ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को जन्मदिन पर गर्मजोशी के साथ बधाई दी। दोनों नेताओं के बीच मुलाकात, फोटो सेशन और आपसी तालमेल ने यह संदेश दिया कि सपा और कांग्रेस रणनीतिक रूप से एक साथ हैं। साथ ही उनके बीच व्यक्तिगत संबंध भी मजबूत हैं। इसके अगले दिन यानी 22 जुलाई को अखिलेश और राहुल गांधी संसद के मकर द्वार पर एक साथ कदमताल करते नजर आए। मुद्दा था, बिहार में मतदाता सूची का गहन निरीक्षण (SIR)। चुनाव आयोग के खिलाफ बिहार के मुद्दे में यूपी को भी जोड़ा
अखिलेश यादव ने चुनाव आयोग पर सीधा प्रहार करते हुए कहा- चुनाव आयोग किसी भी अधिकारी की ट्रांसफर-पोस्टिंग नहीं करता। आप कितनी भी शिकायत करें, कोई कार्रवाई नहीं होती। उन्होंने कुंदरकी और मीरापुर के उपचुनावों में पुलिस प्रशासन पर वोट लूटने का आरोप लगाया। मिल्कीपुर उपचुनाव में भी अनियमितताओं का भी जिक्र किया। राजनीति के जानकारों का कहना है, इस प्रदर्शन में दोनों नेताओं का कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना साफ संदेश है कि बीते दिनों भले ही बयानबाजी हुई, लेकिन गठबंधन मजबूत है। इसे 2027 के विधानसभा के चुनाव की तैयारी के तौर पर भी देखा जा रहा है। गठबंधन की स्थिरता पर इन बयानों से उठे थे सवाल अखिलेश कर चुके 2027 चुनाव साथ लड़ने का ऐलान
अखिलेश यादव पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस एक साथ मिलकर लड़ेंगी। प्रयागराज में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखिलेश ने कहा था कि यह गठबंधन है और रहेगा। अखिलेश यह भी साफ कर चुके हैं कि इंडी गठबंधन, जिसमें सपा और कांग्रेस प्रमुख साझेदार हैं, 2027 में भी एकजुट रहेगा। हालांकि, हरियाणा और महाराष्ट्र में सीटें न मिलने से सपा के कुछ नेताओं ने कांग्रेस से गहरी नाराजगी जाहिर की थी। कांग्रेस की ओर से भी कई नेताओं ने गठबंधन के खिलाफ बयानबाजी की थी। तभी से दोनों दलों के बीच मतभेद के कयास लगाए जा रहे थे। लेकिन, बीते एक महीने में कई मौके ऐसे आए, जब दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व ने एक-दूसरे से रिश्तों की मजबूती का संदेश दिया। 1 जुलाई को अखिलेश यादव के जन्मदिन के मौके पर राहुल गांधी ने उनको बधाई अलग अंदाज में दी थी। उन्होंने अखिलेश यादव को पीडीए की बुलंद आवाज कहकर नवाजा था। राहुल गांधी ने अपने बधाई संदेश में ये भी कहा था कि हम इस न्याय और बराबरी की लड़ाई कंधे से कंधा मिलाकर आपके साथ हैं। इसके बाद 21 जुलाई को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के जन्मदिन के मौके पर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने गले लगकर मुबारकबाद दी थी। मौका भले ही जन्मदिन का रहा हो, लेकिन हाल के दशकों में यह पहला मौका था जब देश की दो बड़ी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एक-दूसरे के गले लगे। क्यों जरूरी है एक दूसरे के लिए गठबंधन वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र कुमार कहते हैं- लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के साथ आने से पूरा चुनाव आमने-सामने का हो गया था। अगर कांग्रेस गठबंधन से अलग लड़ती है, तो वह सपा के हिस्से का ही वोट काटेगी। मुस्लिम और दलित वर्ग का कुछ प्रतिशत वोट भी कांग्रेस की ओर गया, तो इसका सीधा नुकसान सपा को होगा। 2022 के चुनाव में कई सीटें ऐसी थीं, जिन पर हार-जीत का अंतर 5 हजार वोटों से कम का था। तब दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे। वहीं, कांग्रेस यूपी में अपने वजूद की तलाश में है। वोट बैंक के बिखराव का डर
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं- यूपी में अब जातीय राजनीति का दौर शुरू हो रहा है। कांग्रेस कभी दलितों और ब्राह्मणों की पार्टी मानी जाती थी। लेकिन जब से ब्राह्मण भाजपा की ओर गया, उसके बाद से कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई। मौजूदा हालात में कांग्रेस को यूपी में दोबारा अपना वजूद खड़ा करना है, तो उसको एक सहारे की जरूरत है। वहीं, समाजवादी पार्टी 2022 के चुनाव में कई सीटें मामूली अंतर से गंवा चुकी है। वह नहीं चाहती कि उसके वोट बैंक में बिखराव हो, जिससे उसे नुकसान हो। लोकसभा चुनाव में हुआ था जबरदस्त फायदा
कांग्रेस और सपा दोनों को लोकसभा के चुनाव में गठबंधन का जबरदस्त फायदा मिला था। सपा की 7 गुना से अधिक सीटें बढ़ गई थीं। वह पांच से 37 सीटों पर पहुंच गई। जबकि कांग्रेस को सीधे 6 गुने का फायदा हुआ था। वह 1 सीट से 6 सीट पर पहुंच गई थी। इस सफलता ने दोनों पार्टियों को यह भरोसा दिया कि उनकी एकता भाजपा के लिए गंभीर खतरा बन सकती है। राहुल गांधी ने संविधान, जातीय जनगणना और दलितों के आरक्षण जैसे मुद्दों को आक्रामक तरीके से उठाया, जिसे सपा ने भी समर्थन दिया। यह साझा एजेंडा न केवल दोनों पार्टियों के वोट बैंक को मजबूत करता है, बल्कि दलित, PDA समुदायों को एकजुट करने में भी मदद करता नजर आया। 2027 का विधानसभा चुनाव: दोनों दलों की परीक्षा
2027 का यूपी विधानसभा चुनाव इस गठबंधन के लिए बड़ा इम्तिहान होगा। सपा और कांग्रेस का साझा वोट बैंक मुस्लिम, यादव, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग उत्तर प्रदेश की सियासत में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। यह गठबंधन कितना प्रभावी होगा, यह कई वजहों पर निर्भर करता है। सबसे पहले सीट बंटवारे का मसला है। कांग्रेस के सहारनपुर से सांसद इमरान मसूद अखिलेश यादव को खुली चुनौती दे रहे हैं कि 2027 में 2024 वाला फॉर्मूला नहीं चलेगा। यानी 2024 में सपा ने कांग्रेस को 80 में से 17 सीटें दी थीं। कांग्रेस की अभी से मांग है कि वह आधी-आधी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। मतलब, उसे 200 सीटें चाहिएं। गठबंधन की मजबूती का इतिहास
सपा और कांग्रेस का गठबंधन उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई नई बात नहीं है। 2017 के विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों ने यूपी के दो लड़के के नारे के साथ गठबंधन किया था। इसमें अखिलेश और राहुल की जोड़ी को खूब प्रचारित किया गया। हालांकि, उस समय गठबंधन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। लेकिन, 2024 के लोकसभा चुनावों ने इस गठबंधन की ताकत को साबित किया। सपा ने 37 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस ने 6 सीटों पर जीत हासिल की, जो 2019 की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन था। —————————– ये खबर भी पढ़ें… गठबंधन की मजबूरी या संगठन की रणनीति, ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ कहने वाली प्रियंका की यूपी से दूरी के मायने 2017 से लेकर 2022 तक यूपी की हर सियासी हलचल में प्रियंका गांधी का चेहरा कांग्रेस की पहचान बन गया था। ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे से उन्होंने प्रदेश की महिलाओं को खास संदेश दिया। लेकिन आज वही प्रियंका यूपी की सियासत से लगभग गायब हैं। आखिरी बार 2024 लोकसभा चुनाव में अमेठी-रायबरेली में पार्टी की जीत के बाद धन्यवाद सभा में दिखी थीं। उसके बाद प्रयागराज महाकुंभ तक में नहीं आईं। कांग्रेस कार्यकर्ता और समर्थक हैरान हैं। आखिर प्रियंका ने यूपी से किनारा क्यों किया? प्रियंका के यूपी में आने से क्या सपा के साथ कांग्रेस के संभावित गठजोड़ पर कोई असर पड़ने का खतरा था? पढ़ें पूरी खबर