ललित बाबू की हत्या, जगन्नाथ बन गए CM:चुनाव लड़कर भाभी ने देवर को हरवा दिया; कांग्रेस छोड़कर पार्टी बनाई, बेटे को मंत्री बनवा दिया

बिहार के ताकतवर राजनीतिक परिवारों की सीरीज ‘कुनबा’ के तीसरे एपिसोड में पढ़िए मिश्र परिवार की कहानी… 2 जनवरी 1975… समस्तीपुर रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म नंबर-तीन। इंदिरा गांधी सरकार के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र ब्रॉडगेज रेलवे लाइन का उद्घाटन करने पहुंचे। साथ में उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र और कुछ कांग्रेसी नेता भी थे। उद्घाटन के बाद ललित मिश्र ने सभा को संबोधित किया। मंच से उतरने से पहले वो बोले- ‘मैं रहूं या न रहूं, बिहार बढ़कर रहेगा।’ शाम 5 बजकर 50 मिनट पर वे मंच से उतरने लगे। तभी भीड़ से किसी ने एक हैंड ग्रेनेड मंच पर फेंका। जोरदार धमाका हुआ। ललित नारायण समेत 29 लोग घायल हो गए। समस्तीपुर से सबसे नजदीक था दरभंगा मेडिकल कॉलेज। उस वक्त वहां डॉक्टर हड़ताल पर थे। इसलिए ललित नारायण और जगन्नाथ मिश्र के साथ कुछ घायलों को ट्रेन से दानापुर भेजने का फैसला हुआ। यहां से दानापुर की दूरी 132 किलोमीटर थी। पत्रकार संतोष सुमन अपनी किताब ‘जेपी आंदोलन 1974’ में बताते हैं- हादसे के करीब 14 घंटे बाद ट्रेन पटना पहुंची। रास्ते में ललित नारायण बार-बार कह रहे थे- ‘जगन्नाथ को देखो, उसकी हालत खराब है।’ घायलों को दानापुर रेलवे अस्पताल लाया गया। जहां इलाज के दौरान सुबह करीब साढ़े 9 बजे ललित मिश्र की मौत हो गई। ललित नारायण मिश्र की हत्या ने देश में सनसनी मचा दी। सुगबुगाहट थी कि ललित नारायण राजनीति से जुड़े कुछ ऐसे राज जानते थे, जिससे कांग्रेस नेतृत्व मुश्किल में पड़ सकता था। उस समय बिहार में जयप्रकाश नारायण का छात्र आंदोलन भी जोरों पर था और कांग्रेस की साख दांव पर थी। हादसे के चार दिन बाद, 7 जनवरी 1975 को इंदिरा गांधी ने दिल्ली में एक जनसभा की। यहां उन्होंने आक्रामक लहजे में कहा, ‘कुछ कांग्रेस कार्यकर्ता भी उन लोगों की बातों में आ गए हैं, जो अफवाह फैलाकर राजनीतिक हित साध रहे हैं। कल को अगर मेरी हत्या हो जाती है तो यही लोग कहेंगे कि मैंने ही अपनी हत्या की साजिश रची है।’ इंदिरा का इशारा ललित की हत्या को कांग्रेस के भीतर की साजिश से जोड़ने वाली अफवाहों पर था। ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाद बिहार में कांग्रेस नेतृत्व का संकट गहरा गया। जेपी आंदोलन में शामिल नेता इस हत्या के लिए इंदिरा गांधी को घेर रहे थे। माना जा रहा था कि इंदिरा ने माहौल बदलने के लिए बिहार में पार्टी नेतृत्व बदलने का फैसला किया। उन्हें एक ऐसे चेहरे की तलाश थी, जो सहानुभूति बटोर सके और इस मामले में उनकी छवि साफ रखे। इसके लिए उन्होंने अपने भरोसेमंद पीवी नरसिम्हा राव को पटना भेजा। इंदिरा गांधी की योजना एक तीर से दो शिकार करने की थी। उन्हें उम्मीद थी कि बिहार के सीएम अब्दुल गफूर की विदाई से बिहार में छात्र आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा। इस भूमिका के लिए ललित मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को चुना गया। बड़े भाई की हत्या के तीन महीने बाद 11 अप्रैल 1975 को जगन्नाथ मिश्र ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। जिस पर बाद में ललित मिश्र की पत्नी कामेश्वरी ने ही सवाल उठाए। मिश्र परिवार में 5 लोग राजनीति में सक्रिय रहे हैं। ललित नारायण मिश्र दो बार राज्य मंत्री और एक बार रेल मंत्री रहे। उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। ललित नारायण के बेटे विजय कुमार मिश्र भी सांसद और विधायक रह चुके हैं। उनके बेटे ऋषि मिश्रा पूर्व विधायक और आरजेडी के प्रवक्ता हैं। जबकि जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र बिहार सरकार में तीन बार मंत्री रहे, फिलहाल वे उद्योग मंत्री के पद पर हैं। अंग्रेजों ने जेल भेजा, तो पिता ने माफीनामा लिखने से इनकार किया 1923 में बसंत पंचमी के दिन सुपौल के बसलनपट्टी के मैथिल ब्राह्मण परिवार में ललित नारायण मिश्र का जन्म हुआ। पिता रविनंदन मिश्र जमींदार थे। ललित पांच भाइयों में सबसे बड़े थे और जगन्नाथ सबसे छोटे। ललित को सभी ‘बउआ भाई’ कहते थे। जगन्नाथ मिश्र अपनी आत्मकथा ‘बिहार बढ़कर रहेगा’ में लिखते हैं- ‘चचेरे भाई पं. राजेन्द्र मिश्र कांग्रेस से जुड़े थे। घर पर बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। बउआ भाई छात्र जीवन से ही राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे।’ 1942 में अंग्रेजों ने ललित मिश्र को पांच साल के लिए जेल में डाल दिया। तब कई लोगों ने उनके पिता को माफीनामा देने की सलाह दी, ताकि ललित की सजा कम हो सके। हालांकि रविनंदन मिश्र इसके लिए राजी नहीं हुए, क्योंकि वो ललित को राजनीति में भेजना चाहते थे। ऐसे में ललित को जेल में रहना पड़ा। साल 1948 में ललित नारायण ने पटना यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में एमए किया। इसके बाद उन्हें भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई। जब नौकरी की बात पिता को पता चली तो उन्होंने जॉइन करने से मना कर दिया। दो साल बाद 1950 में देश में अंतरिम सरकार बनने वाली थी। ललित मिश्र राजनीति में सक्रिय थे, इसलिए उन्हें और उनके परिवार को उम्मीद थी कि वो अंतरिम संसद के सदस्य बनेंगे। हालांकि ललित बाबू का नाम नहीं चुना गया। तब बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से बात की। इस बातचीत का ही नतीजा था कि ललित नारायण की नियुक्ति संयुक्त राष्ट्र के लिए हो गई। 1952 में जब देश में पहला लोकसभा चुनाव हुआ तो ललित नारायण दरभंगा से सांसद बने। नेहरू की पहली कैबिनेट में उन्हें योजना, श्रम और रोजगार मंत्रालय दिया गया। इसके बाद 1964 में राज्यसभा के लिए चुने गए। इन्हीं की पहल पर मैथिली को 22 भारतीय भाषाओं में शामिल किया गया। 1966 में ललित मिश्र दोबारा राज्यसभा पहुंचे। 1972 में दरभंगा से चुनाव जीतकर फिर से संसद पहुंचे। 4 फरवरी 1973 को इंदिरा गांधी सरकार में रेल मंत्री बने। उन्हें इंदिरा गांधी के टॉप पांच मंत्रियों में से एक माना जाता था। मिथिला के लोग ललित नारायण मिश्र को ललित बाबू कहते थे। तांत्रिक ने कराई थी रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या? 2 जनवरी 1975 को समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम ब्लास्ट हुआ। ललित नारायण मिश्र, एमएलसी सूर्य नारायण झा समेत रेलवे क्लर्क राम किशोर प्रसाद की भी मौत हो गई। CBI के मुताबिक, इस हमले के पीछे आनंद मार्ग के संस्थापक और तांत्रिक छवि वाले पीआर सरकार के समर्थक थे। वो रेल मंत्री की हत्या कर सरकार पर प्रेशर बनाना चाहते थे। पीआर सरकार, 1971 से एक हत्या की साजिश के आरोप में जेल में बंद था। जेल में ही हत्या की प्लानिंग हुई। अदालत ने 2014 में चार आनंदमार्गी- संतोषानंद, सुदेवानंद, गोपालजी और अधिवक्ता रंजन द्विवेदी को उम्रकैद की सजा सुनाई। हालांकि ललित मिश्र का परिवार इस फैसले से कभी संतुष्ट नहीं था। उन्हें लगता है कि ललित मिश्र की हत्या के पीछे राजनीतिक साजिश थी। 2024 में ललित मिश्र के पोते वैभव मिश्रा ने दिल्ली हाइकोर्ट में केस की वापस से जांच की मांग की थी, जिसके बाद से केस की जांच चल रही है। उस दौर में इस हत्या की साजिश को लेकर कई बातें फैलने लगीं, कुछ में तो कांग्रेस आलाकमान के नाम भी थे। हालांकि इंदिरा ने ललित मिश्र की हत्या के पीछे विदेशी ताकतों की आशंका जताई थी। कहा गया कि हत्या में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का हाथ है। 90 के दशक में एक केजीबी अधिकारी की ओर से लीक की गई जानकारी के आधार पर एक किताब आई, नाम था- ‘The Mitrokhin Archive’। इस किताब में दावा किया गया कि पीएम इंदिरा गांधी और ललित नारायण ने केजीबी से घूस ली थी, इसलिए सीआईए ने ललित बाबू को मरवा दिया। जगन्नाथ के सीएम बनने के ढाई महीने बाद इमरजेंसी लग गई जगन्नाथ मिश्र 1972 में झंझारपुर से चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने। अपने भाई की तरह उनका रुझान भी शुरू से ही राजनीति की ओर था। उन्होंने 1958 में इकोनॉमिक्स से बीए और 1960 में मुजफ्फरपुर के एलएल कॉलेज से एमए किया। बाद में इसी कॉलेज में बतौर लेक्चरर उन्होंने जनसंघ से विधान परिषद सदस्य (एमएलसी) बनने के लिए फॉर्म भरा। तब ललित मिश्र ने उन्हें समझाकर रोक लिया था। फिर कांग्रेस के टिकट पर विधायक बनाया। कांग्रेस हाईकमान के फरमान पर 11 अप्रैल 1975 को अब्दुल गफूर से इस्तीफा लेकर जगन्नाथ मिश्र को सीएम बनाया गया। उस वक्त 38 साल के जगन्नाथ मिश्र बिहार के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। धीरे-धीरे जगन्नाथ भी अपने भाई की तरह गांधी परिवार के करीब होते गए। उन्होंने बिहार में कांग्रेस नेताओं की नाराजगी के बीच केंद्र में संजय गांधी को साध लिया। जगन्नाथ को सीएम बनाने के लगभग ढाई महीने बाद ही इंदिरा ने इमरजेंसी का ऐलान कर दिया। साल 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद लोकसभा चुनाव हुए। इसमें जनता पार्टी जीती। बिहार समेत 9 राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। विधानसभा चुनाव दोबारा हुए तो जनता पार्टी को बहुमत मिला। जगन्नाथ अपनी झंझारपुर सीट बचा ले गए। भाभी ने कहा-जगन्नाथ में सीएम बनने की कोई योग्यता नहीं इस बीच ललित मिश्र हत्याकांड की जांच में हो रही देरी से परिवार वालों में नाराजगी बढ़ रही थी। 24 मई 1977 को ललित बाबू की पत्नी कामेश्वरी मिश्र ने पटना में प्रेस कॉन्फ्रेंस की। यहां उन्होंने बम कांड की जांच पर सवाल उठाए। देवर जगन्नाथ मिश्र को लेकर कहा, ‘डॉ. मिश्र में ऐसी क्या योग्यता थी कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया? क्या बिहार में सीएम बनाने के लिए जगन्नाथ मिश्र से अच्छे लोग नहीं थे? मेरे पति की हत्या के पीछे राजनीतिक लोग हैं, जिनमें कुछ बिहार से संबंधित हैं।’ भाभी की वजह से पहला लोकसभा चुनाव हारे जगन्नाथ मिश्र जनता पार्टी में फूट के बाद 1980 में दोबारा लोकसभा चुनाव हुए। जगन्नाथ मिश्र झंझारपुर सीट से चुनाव में उतरे। इसी सीट से उन्होंने विधायकी जीतकर राजनीतिक सफर शुरू किया था। उनके सामने राजनारायण सिंह और चौधरी चरण सिंह की जनता पार्टी (सेक्युलर) के धनिक लाल मंडल चुनाव में उतरे। जगन्नाथ की जीत का रास्ता आसान दिख रहा था। अचानक ये मुकाबला त्रिकोणीय हो गया। 1979 की इंडिया टुडे मैगजीन में इस सीट का विस्तार से जिक्र मिलता है। ललित नारायण मिश्र के दोस्त रहे चंद्रशेखर ने जनता पार्टी के टिकट पर ललित मिश्र की विधवा कामेश्वरी देवी को मैदान में उतार दिया। कामेश्वरी देवी 1977 का चुनाव भी लड़ना चाहती थीं, लेकिन तब इंदिरा गांधी ने उन्हें टिकट नहीं दिया था। पति की हत्या के बाद से कामेश्वरी देवी की जगन्नाथ मिश्र से बातचीत बंद थी। चुनाव से कुछ ही महीनों पहले कामेश्वरी ने जगन्नाथ पर आरोप लगाया था कि उन्होंने मुख्यमंत्री का पद अपने भाई की मौत के इनाम के तौर पर पाया था। केस की जांच में हो रही देरी की वजह से उन्होंने इंदिरा गांधी से भी संबंध तोड़ लिए थे। भाभी कामेश्वरी चुनाव प्रचार के दौरान लोगों से कहती- ‘जब से ललित बाबू गुजरे हैं, तबसे जगन्नाथ मिश्र ने हम लोगों का ख्याल नहीं रखा।’ कामेश्वरी देवी के समर्थन में पोस्टर्स लगे, जिसमें लिखा गया- ‘बेटी और बहन अपने नैहर (मायके) से कभी खाली हाथ नहीं लौटती। यह हमारी परंपरा है और मुझे विश्वास है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे।’ भाभी के चुनाव लड़ने से जगन्नाथ मिश्र असहज थे। वे काफी समय तक भाभी के क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए भी नहीं गए। आखिरकार कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। हालांकि जगन्नाथ मिश्र अपना पहला लोकसभा चुनाव हार गए। इस हार की वजह बनीं उनकी भाभी। कामेश्वरी 84,135 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर रही। जगन्नाथ मिश्र 45,483 वोट के अंतर से धनिक मंडल से हार गए। इससे साफ था कि भाभी की वजह से जगन्नाथ के वोट कट गए थे। कांग्रेस ने 374 सीटों के साथ देश में सरकार बनाई। सरकार बनने के बाद इंदिरा ने 9 गैर कांग्रेसी राज्य की सरकारों को उसी तर्ज पर बर्खास्त कर दिया, जैसे मोरारजी ने किया था। बिहार की राम सुंदर सरकार भी इसमें शामिल थी। राज्य में नए सिरे से चुनाव हुए। कांग्रेस की सरकार बनी और गांधी परिवार के करीबी होने के कारण जगन्नाथ मिश्र एक बार फिर बिहार के सीएम बन गए। इंदिरा का विरोध करने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी गई जगन्नाथ के लिए बतौर मुख्यमंत्री दूसरा कार्यकाल मुश्किल होता जा रहा था। संजय गांधी की प्लेन हादसे में मौत के बाद पार्टी में उनके विरोधी भी एक्टिव हो गए थे। इस बीच चर्चा थी जगन्नाथ के तीन बेहद करीबी मंत्री थे-राजो सिंह, रघुनाथ झा और डॉ. प्रभुनाथ सिंह। इस तिकड़ी को लोग किचन कैबिनेट कहते थे। उस दौर में बिहार में एक नारा चलता था, जगन्नाथ के तीन हाथ राजो, रघुनाथ और प्रभुनाथ। 1983 में केंद्र सरकार की नई मिनरल पॉलिसी आई। बिहार विधानसभा में जगन्नाथ मिश्र ने करीब दो घंटे तक भाषण देकर इस पॉलिसी का विरोध किया। उनका कहना था कि खरीदार होने के नाते केंद्र सरकार को बिहार के खनिजों पर रॉयल्टी तय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इससे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नाराज हो गईं। उन्हें दिल्ली बुलाया गया और तीन हफ्तों के भीतर इस्तीफा ले लिया गया। अगस्त 1983 के पहले हफ्ते में जगन्नाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी। सीएम बने रहने के लिए 108 बकरों के खून से नहाए इंडिया टुडे मैगजीन के मुताबिक, साल 1982 में एक अफवाह फैली कि जगन्नाथ खुद को सत्ता में बनाए रखने के लिए तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। उन्होंने यूपी-बिहार की सीमा पर स्थित एक तांत्रिक मठ में 108 बकरों की बलि दी। दावा किया गया कि मुख्यमंत्री को इन बकरों के खून से नहलाया भी गया है। जब इस बारे में पत्रकारों ने उनसे सवाल पूछे, तो सीएम गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने लगभग चिल्लाते हुए जवाब दिया- ‘फरेब है, ये सब बातें फरेब हैं।’ इतने अंधविश्वासी कि अंकशास्त्री के कहने पर ‘मिश्र’ सरनेम हटा लिया संतोष सिंह अपनी किताब ‘Ruled Or Misruled: Story and Destiny of Bihar’ में लिखते हैं कि जगन्नाथ मिश्र बेहद अंधविश्वासी स्वभाव के थे। आलोचना और चुनौतियों से घिरे हुए जगन्नाथ मिश्र ने लोकप्रियता पाने का अनोखा तरीका निकाला। मई 1983 में उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी में एक कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें करीब 300 छात्रों ने मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की मौजूदगी में अपना सरनेम छोड़ हटा लिया। हालांकि 14 अगस्त 1983 को जगन्नाथ को पद से हटा दिया गया। उस दौर के एनएसयूआई छात्र संघ अध्यक्ष प्रेमचंद्र मिश्र याद करते हैं, ‘मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के अगले दिन कुछ छात्र नेता सहानुभूति जताने उनके पास गए। मैं यह देखकर चौंक गया कि उनके नए लेटरपैड पर फिर से ‘जगन्नाथ मिश्र’ लिखा था। मैंने तुरंत मैथिली में पूछ लिया- ‘ए की क लेलिये?’ (ये क्या कर लिया आपने?)। वे मुस्कुराए और बोले- ‘तुम भी ऐसा ही करो।’ कुछ दिन बाद पता चला कि अंकशास्त्री ने मिश्र को सलाह दी थी कि सरनेम हटाने से कुर्सी बच सकती है। ललित मिश्र के बेटे विजय की राजनीति में एंट्री साल 1984 में ललित मिश्र के बेटे विजय कुमार मिश्र ने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। दरभंगा से लोकदल के टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। उन्होंने इस दौरान कांग्रेस का विरोध करते हुए बिहार से अलग मिथिलांचल राज्य बनाने की मांग तेज की। राजीव गांधी ये भांप चुके थे कि बिहार में कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो रही है। उन्होंने 1989 के लोकसभा चुनाव से पहले जगन्नाथ मिश्र को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। इसके बाद जगन्नाथ ने भतीजे विजय मिश्रा को पार्टी में शामिल कर लिया। विजय कुमार फिर से सांसद बन गए। इधर बिहार के सीएम छोटे नारायण सिन्हा और उनके परिवार का बेहद खराब प्रदर्शन रहा। भागलपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस बैकफुट पर थी। 6 दिसंबर 1989 को कांग्रेस ने तीसरी बार जगन्नाथ मिश्र को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया। विधानसभा चुनाव में सिर्फ तीन महीने बाकी थे। मार्च 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। इसके बाद से अब तक कांग्रेस अपने दम पर कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। 1994 में पीवी नरसिम्हा राव ने जगन्नाथ को राज्यसभा के रास्ते दिल्ली बुला लिया। एक साल बाद 1995 में जगन्नाथ को ग्रामीण क्षेत्र और रोजगार मंत्री बनाया गया। बाद में इस मंत्रालय का नाम ग्रामीण विकास मंत्रालय रखा गया। जगन्नाथ ने कांग्रेस छोड़ी, अपनी पार्टी में बेटे को शामिल किया नवंबर 1996 में सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बने। जगन्नाथ और सीताराम केसरी के बीच पिछले दो दशकों से खटपट थी। इसी दौरान जगन्नाथ मिश्र चारा घोटाले में घिरने लगे। उन्होंने कई साल बाद संसद टीवी को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ‘मुझे सीताराम केसरी ने और लालू यादव को पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा ने चारा घोटाले में फंसाया था।’ 1999 में जगन्नाथ ने रामलखन सिंह यादव के साथ मिलकर कांग्रेस छोड़ दी। दोनों ने मिलकर बिहार जन कांग्रेस नाम से नई पार्टी बनाई। 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले जगन्नाथ के छोटे बेटे नीतीश मिश्र पढ़ाई पूरी कर घर लौटे थे। एक दिन उन्होंने बेटे से पूछा, ‘चुनाव लड़ने का मन है?’ नीतीश ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने राजनीति में आने के बारे में पहले कभी सोचा नहीं था, लेकिन पिता के पूछने पर मना नहीं कर पाए। पिता की पार्टी बिहार जन कांग्रेस से नीतीश मिश्र का राजनीतिक डेब्यू हुआ। नीतीश ने अपना पहला चुनाव झंझारपुर सीट से लड़ा। पहले चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव के बाद जगन्नाथ ने अपनी पार्टी का विलय शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी में कर लिया। पहले जेडीयू फिर बीजेपी में शामिल हुए, बेटे को मंत्री बनवाया 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले जॉर्ज फर्नांडीस ने जगन्नाथ मिश्र को जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) में शामिल कर लिया। नीतीश मिश्र फिर से झंझारपुर की सीट से चुनाव लड़े। जेडीयू के टिकट पर उन्होंने आरजेडी के जगदीश नारायण चौधरी को हराया। नीतीश मिश्रा ने एक इंटरव्यू में बताया, ‘24 नवंबर 2005 की सुबह नीतीश कुमार के ऑफिस से कॉल आया। मैंने फोन उठाया तो सामने से आवाज आई- सर बात करेंगे। मैंने कहा- ठीक है पिता जी को फोन देता हूं। सामने से जवाब आया कि बात आपसे करनी है। आपको मंत्री बनाया जा रहा है।’ नीतीश कुमार की सरकार में नीतीश मिश्रा को गन्ना विभाग का मंत्री बनाया गया। नीतीश मिश्रा ने बिहार सरकार के तीन अलग-अलग मंत्रालयों का प्रभार संभाला। 2008 से 2009 तक आपदा प्रबंधन विभाग के मंत्री रहे। 2010 से 2015 तक ग्रामीण विकास विभाग के मंत्री बनाए गए। 2015 में नीतीश मिश्र ने जीतन राम मांझी के साथ जेडीयू छोड़ दी। कुछ समय बाद पिता जगन्नाथ के साथ बीजेपी में शामिल हो गए। 2015 के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 19 अगस्त 2019 को कैंसर की वजह से जगन्नाथ मिश्र का निधन हो गया। कभी बिहार में कांग्रेस के कद्दावर चेहरा रहे जगन्नाथ, अपने आखिरी समय में बीजेपी के प्रशंसक बन गए थे। 2020 में उनके बेटे नीतीश बीजेपी के टिकट पर फिर से झंझारपुर से विधायक बने। 15 मार्च 2024 को उन्हें बिहार सरकार में उद्योग मंत्री का पद मिला। 2014 में ललित मिश्र के पोते ऋषि का राजनीतिक डेब्यू ललित मिश्र के बेटे विजय कुमार मिश्र 2000 में बीजेपी के टिकट पर विधायक बने। 2014 में पार्टी बदलकर जेडीयू में शामिल हुए और विधान परिषद सदस्य चुने गए। साल 2014 के उप-चुनाव में विजय कुमार ने जेडीयू के टिकट से बेटे ऋषि मिश्रा को मैदान में उतारा, उन्हें जीत मिली। हालांकि 2015 विधानसभा में ऋषि को हार का सामना करना पड़ा। साल 2019 में ऋषि जेडीयू छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए। हालांकि नेतृत्व से असंतोष जताते हुए उन्होंने 2 फरवरी 2022 को इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देते वक्त उन्होंने कहा था कि राजनीति से मेरा मन उचट गया है। अब मैं संन्यास ले रहा हूं। हालांकि एक महीने बाद ही उन्होंने तेजस्वी यादव की मौजूदगी में आरजेडी का दामन थाम लिया। फिलहाल वो आरजेडी के प्रवक्ता हैं। *** स्टोरी संपादन- उदिता सिंह परिहार

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