कारगिल विजय दिवस से पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने शहीद सैनिकों के परिजनों को बड़ी राहत देते हुए महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी सैन्य अभियान के दौरान कोई जवान अपने ही साथी की गोली से मारा जाता है, तो उसे भी ‘ड्यूटी पर शहीद’ माना जाएगा और उसके परिवार को वही लाभ मिलेंगे जो अन्य शहीदों को दिए जाते हैं। यह ऐतिहासिक फैसला न्यायमूर्ति अनुपिंदर सिंह ग्रेवाल और न्यायमूर्ति दीपक मनचंदा की खंडपीठ ने दिया। कोर्ट ने केंद्र सरकार की उस आपत्ति को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि सैनिक की मां ने पेंशन की मांग 25 साल की देरी से की है। कोर्ट ने कहा कि सैनिकों के बलिदान की कीमत समय सीमा से नहीं आंकी जा सकती। ऑपरेशन रक्षक के दौरान हुई थी सैनिक की मौत यह मामला 1991 में “ऑपरेशन रक्षक” के दौरान हुई एक घटना से जुड़ा है, जिसमें एक जवान को साथी सैनिक की गोली लग गई थी। सेना ने इस मौत को ‘बैटल कैजुअल्टी’ माना था। केंद्र सरकार ने सशस्त्र बल अधिकरण (AFT) के 22 फरवरी 2022 के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें शहीद की मां को ‘लिबरलाइज्ड फैमिली पेंशन’ देने का निर्देश दिया गया था। लेकिन हाईकोर्ट ने माना कि AFT ने रक्षा मंत्रालय की 2001 की गाइडलाइंस के अनुसार सही फैसला दिया। कोर्ट ने केंद्र सरकार की याचिका खारिज कर दी। क्या है मामला? यह केस रुकमणि देवी नाम की महिला का है, जिनके बेटे की मौत 21 अक्टूबर 1991 को ऑपरेशन रक्षक के दौरान जम्मू-कश्मीर में हो गई थी। सेना के रिकॉर्ड के अनुसार, जवान की मौत एक साथी सैनिक की गोली लगने से हुई थी। उस समय भी इसे “बैटल कैजुअल्टी” (युद्धकालीन हानि) के रूप में दर्ज किया गया था। लेकिन रुकमणि देवी को इस मौत के बाद लिबरलाइज्ड फैमिली पेंशन नहीं दी गई, जो एक्शन में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों को दी जाती है। उन्होंने यह दावा साल 2018 में सशस्त्र बल अधिकरण (AFT) के सामने पेश किया, यानी बेटे की मौत के 25 साल बाद। AFT ने 22 फरवरी 2022 को अपने आदेश में केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वे रुकमणि देवी के पेंशन के दावे पर विचार करें। लेकिन केंद्र सरकार ने इस आदेश को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट में अपील दाखिल की।