जब स्कूलिंग कर रहा था तब गांववालों की तरह मेरा भी एक ही मकसद था कि आर्मी में जाउं और देश की सेवा करूं। मेरे गांव के ज्यादातर लड़कों के पास यही विकल्प था कि वे मिलिट्री में जाएं। हालांकि, 10वीं में मेरा साइंस और मैथ्स में बहुत अच्छा नंबर आया था। तब लोगों ने मां-बाबूजी को बताया कि जिसका साइंस और मैथ्स अच्छा होता है वो इंजीनियर बन सकता है। सबने IIT की तैयारी की सलाह दी। मां-बाबूजी भी तैयार हो गए, लेकिन इसकी समझ मेरे परिवार में किसी के पास नहीं थी। तब मुझे अपने संपन्न रिश्तेदारों के पास भेजा गया, ताकि मैं समझ सकूं और वे मदद कर सकें। उन लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया। बोले- ‘अर्जुन जैसा 10-12 लाख लड़का IIT की परीक्षा देता है। इसे IIT नहीं ITI करने के लिए बोलिए। इससे रेलवे में नौकरी भी मिल जाएगी। यहां से मैं काफी डिमोटिवेट होकर निकला। तब ठान लिया कि करुंगा तो इंजीनियरिंग ही। ‘मैं बिहारी’ में इस बार कहानी छपरा के 32 साल के अर्जुन यादव की। जिसने 5वीं क्लास से ही पढ़ाई के साथ घर का खर्च चलाने के लिए बाजार में आलू बेचा। नोएडा में चाय का स्टॉल लगाया। पटना में मेस का कारोबार किया। आज वही शख्स बिहार में अपने रेस्तरांं शांतिलाल्स का चेन बना रहा है। 3 साल में 25 करोड़ का कारोबार खड़ा किया और 600 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा हैं। आगे की कहानी अर्जुन यादव की जुबानी, पढ़िए और देखिए…। 10 साल तक पिताजी अपना पैंट ही पहनाते थे अर्जुन छपरा के खलपुरा के रहने वाले हैं। उन्होंने बताया, ‘प्रारंभिक शिक्षा गांव के इंदिरा गांधी बाल विकास विद्यालय से हुई। 5वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांव से 10 किलोमीटर दूर छपरा के विद्या विकास शिशु विद्यालय में एडमिशन लिया। पिता और मां के अलावा हम 5 भाई-बहन हैं। 5 भाई- बहनों में मैं चौथे नंबर का था। पिताजी रेलवे में ग्रुप डी की नौकरी करते थे। इसी से हमारे पिता का भरन-पोषण होता था। 5वीं कक्षा तक पिताजी ने कभी मुझे हाफ पैंट खरीदकर नहीं दिया था। उन्हें जो खाकी का पैंट मिलता था, वही हमलोगों को भी पहनने के लिए मिल जाता था। भाई आलू की खेती करते, मैं बाजार जाकर बेचता था घर के हालात और परिस्थिति ने बचपन से ही मुझे पैसा कमाने की दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। हम उसी समय से अलग-अलग कुछ आउट ऑफ द बॉक्स करने लगे थे। तब भांजे गुड्डू के साथ स्कूल जाता था। इस दौरान हम गांव के रास्ते से 1 रुपए का 20 पकौड़ी खरीदते थे। स्कूल में हम एक रुपए का 16 पकौड़ी रैपर में भरकर बेच देते थे। इस पैसे से हम अपना पॉकेट खर्च निकाल लेते थे। इस पकौड़ी से हमने गांव में एक छोटी सी किराना दुकान खोल ली थी। बड़े भाई खेती करते थे। आलू-सब्जी सब उगाते थे। हम इन सब्जियों को खेत से लाते थे। इन्हें धोकर साइकिल से बिष्णपुरा बाजार जाते थे और बोरा पर रखकर बेच लेते थे। घर चलाने के लिए ये सब करना पड़ रहा था। इसको लेकर मुझे कभी शर्म नहीं आई। मोहल्ले के लोगों ने ताना दिया तो स्कूल टॉपर बनकर दिखाया ये सब करते हुए हम अपनी पढ़ाई को कभी बाधित नहीं होने देते थे। जितनी मेहनत परिवार की मदद में करते थे, उतनी ही मेहनत पढ़ाई पर भी करते थे। अपने ग्रुप के लड़कों में हम सबसे बेहतर थे। जब हम गांव से छपरा के स्कूल गए तो वहां का माहौल थोड़ा अलग था। वहां ढलने में एक साल लगा। 7वीं में स्कूल का सेकेंड टॉपर लड़का बन गया था। 8वीं बोर्ड में इतनी तैयारी कर लिया था कि 8वीं में पढ़ते हुए 9वीं की किताब सॉल्व करता था। दुकान भी देख लेता था। घरवाले पढ़ने के लिए जब स्कूल भेजते थे तब टोला-मोहल्ला वाले बोलते थे- जो लड़का पैसा देख लिया वो कभी पढ़ाई नहीं कर पाएगा। इसके बाद परिवार के लोगों ने हमें कहा- दुकान छोड़ो, तुम पढ़ाई पर फोकस करो। इसके बाद परिवार के लोग सब दुकान देखने लगे। कर्ज लेकर परिवार ने पटना के ट्यूशन में एडमिशन कराया एक दोस्त की मदद से 3 मई 2008 को पहली बार पटना आया था। मेरा दोस्त पहले से ही यहां रहकर तैयारी कर रहा था। यहां मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कोचिंग में एडमिशन लेना। फीस इतनी थी कि पैसा जुटाने परिवार वालों के लिए संभव नहीं था। तब मेरे पिताजी की कुल सैलरी 3,200 रुपए थी और मैं विजन क्लासेज में एडमिशन लेने आया था। इसकी फीस तब 65 हजार रुपए थी। तब किसी तरह कर्ज लेकर मेरे माता-पिता ने मेरी फीस भरी। तब मुझे खाना बनाना नहीं आता था। लॉज में रहते थे। मेस का खाना औकात से बाहर का था और बाहर खा नहीं सकते थे। तकरीबन 10 दिन तक हम पटना में केवल चना और मूंग खाकर रहे, जो घर से लेकर आए थे। इसके बाद हमने खाना बनाना सीखा। 12वीं की पढ़ाई के बाद पहले अटेंप्ट में मेरा रैंक एक लाख से पार का था, जो अच्छा नहीं था। मैं सिविल इंजीनियर बनना चाहता था। एजुकेशन लोन के सहारे पढ़ने के लिए नोएडा गया इसके बाद 2011 में मैंने दूसरा अटेंप्ट लिया। तब रैंक कुछ हद तक ठीक आया। काउंसिलिंग के बाद गलगोटिया यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग में मेरा एडमिशन हुआ। यहां मुझे इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग अलॉट हुआ। इंजीनियरिंग की परीक्षा पास होने के बाद सबसे बड़ी चुनौती थी फीस चुकाने की। सबसे पहले तो काउंसिलिंग का ही 16 हजार रुपए देना पड़ा। इसके बाद इंजीनियरिंग कॉलेज की फीस के तौर पर 93 हजार रुपए सालाना देना था। ये मेरे परिवार के लिए असंभव था। तब मेरे एक मित्र के पिता सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के मैनेजर थे। उनकी मदद से मैंने वहां से कॉलेज फीस के लिए एजुकेशन लोन लिया। 3.93 लाख रुपए का तब लोन लिया था। संघर्ष से सीखा पढ़ाई से ज्यादा कमाई जरूरी कॉलेज पहुंचने तक मुझे समझ आ गया था कि पढ़ाई से ज्यादा जरूरी है कमाई। मेस में खाने के लिए संघर्ष, पढ़ने के लिए संघर्ष, कॉलेज फीस के लिए संघर्ष। इन सबने मुझे इतना सीखा दिया कि पढ़ाई से ज्यादा जरूरी है कमाई। इसके बाद मैं पढ़ाई से ज्यादा कमाई के विकल्प तलाशना शुरू कर दिया। तब मैंने अपने कॉलेज में एडमिशन और मैनेजमेंट कोटा के एडमिशन को अच्छे से समझा। मुझे समझ आ गया कि एडमिशन काउंसिलिंग एक प्रक्रिया है, जहां से पैसे कमाए जा सकते हैं। इसके बाद पढ़ाई के साथ मैंने काउंसिलिंग शुरू की। पढ़ाई बस जरूरत भर ही करता था। इसके बाद काउंसिलिंग से मैंने पैसा कमाना शुरू कर दिया। सेकेंड ईयर में ही इस प्रक्रिया से मैं 3-4 लाख रुपए कमा लिया। खाने के लिए संघर्ष किया, इसलिए पटना में मेस खोला पैसे आए तो मैं और कमाने का तरीका ही ढूंढने लगा। वो साल 2013 का था, मुझे खाने की बड़ी किल्लत थी। स्कूल से लेकर कॉलेज तक मुझे समझ आ गया था कि खाने का कारोबार बेहतर हो सकता है। तब मैंने पटना के हनुमान नगर में अपना मेस शुरू किया। बैंक से लोन लेकर मैंने होटल खाना-खजाना नाम का मेस खोला। ये मेरा पहला बिजनेस प्लेटफॉर्म था। सोमवार से शुक्रवार तक कॉलेज में पढ़ाई करता था और शनिवार-रविवार अपने मेस को बेहतर बनाने और इसके विस्तार करने पर काम करता था। मेस का धंधा पूरी तरह हिट हो गया। 2015 में इंजीनियरिंग का फाइनल ईयर का पेपर था। एक तरफ मेरा पेपर था और दूसरी तरफ मेरे पास एक बच्चे की काउंसिलिंग के बदले 6 लाख रुपए का फायदा था। मैंने परीक्षा छोड़कर पैसा कमाना मुनासिब समझा। इसके कारण मेरी इंजीनियरिंग आज तक पूरी नहीं हो पाई। नोएडा में कुल्हड़ वाली चाय को लॉन्च किया 2015 में मैंने नया बिजनेस शुरू करने प्लान किया। तब वहां पेपर वाली चाय चलती थी। मैंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर ग्रेटर नोएडा के एवरग्रीन स्वीट्स के आगे चाय दुकान खोलने का तय किया और तब 2015 में पहली बार नोएडा में कुल्हड़ वाली चाय को इंट्रोड्यूस किया। मैं खुद से चाय बनाने लगा। टी पॉइंट के नाम से मेरा बिजनेस आइडिया हिट हो गया। हम इतने पॉपुलर हो गए कि एक दिन 6-7 क्विंटल की चाय बेचने लगे। इसके बाद एवरग्रीन के हर आउटलेट्स के आगे हमारी दुकान खुल गई, हर जगह मेरे दोस्त इन्वॉल्व होते चले गए। इधर, पटना में मेरा मेस पहले से ही चल रहा था। इसे मैंने अपने एक रिलेटिव को सौंप दिया था। 2016 के आखिर में चाय की दुकान को दोस्त को सौंप कर पटना लौट आया। यहां 2017 में नाश्ते का दो कमरे से अपना एक नया बिजनेस शुरू किया। इसमें समोसा, मिठाई, कचौड़ी और गोलगप्पा बनवाने लगा। यहां बनाकर पांच ठेले में इसे पटना के अलग-अलग इलाके में भेजने लगा। नाम रखा फूड्स मंत्रा डॉट कॉम। इसकी ब्रांडिंग भी करने लगा। जब बिजनेस चलने लगा तो मैं इसे भी अपने एक रिश्तेदार को सौंप दिया, लेकिन वे संभाल नहीं सके और बिजनेस बैठ गया। कोविड ने पूरे धंधे को चौपट किया, 50 लाख का कर्ज हुआ इसके बाद 2019 में पटना के हनुमान नगर में पटना सुपर मार्ट से एक मेगा मार्ट खोला। इसे खुलते ही कोविड आ गया। ये एक संकट का काल था। मेस का बिजनेस धीरे-धीरे बंद होने लगा और मार्ट के सामान को भी लोगों के घर-घर तक पहुंचाना पड़ा। ये जिम्मेदारी भी मैंने खुद उठाई। उस दौरान लोग मुझे दूर से सामान रखवा लेते थे। बदतमीजी से बोलते थे। ग्रॉसरी में लगातार मुनाफा कम हो रहा था। घर खर्च बढ़ रहा था। एजुकेशन का पूरा व्यापार पहले ही बर्बाद हो गया था। 2020 के आखिर आते-आते मेरा सुपर मार्केट बंद हो गया। हम एक तरीके से पूरी तरह से बैंकरप्ट हो गए। 2021 में मैं लगभग 50 लाख के कर्ज में जा चुका था। गर्लफ्रेंड के नाम पर लोन लेकर शांतिलाल्स को शुरू किया अब एक तरीके से मुझे फिर से शून्य से शुरू करना था। मैं कर्ज से दबा हुआ था। तब एक आइडिया जिस पर सहमत हुए कि मिठाई के कारोबार में खूब फायदा है लेकिन बहुत ज्यादा जानकारी मेरे पास नहीं थी। कंपनी की फ्रेंचाइजी लेने की कोशिश की, लेकिन ये करोड़ों की डिमांड करने लगे। तब अपना प्रोजेक्ट शुरू करने का तय किया। मेरे नाम पर लोन भी नहीं हो रहा था। तब मैंने गर्लफ्रेंड स्नेहा (अभी पत्नी हैं) के नाम पर लोन लेने का तय किया। उनका सपोर्ट मुझे मिला। नाम तय किया शांति लाल, क्योंकि मेरी मां का नाम शांति था, लाल मतलब बेटा। अक्टूबर 2021 में मुझे 95 लाख रुपए का लोन ग्रांट हुआ। लोन मिलने के बाद भांजे ने भी आर्थिक तौर पर मदद की। एक साल में 9 करोड़ तीन साल में 25 करोड़ का टर्नओवर किया 8 मार्च 2022 को शांतिलाल्स का पहला आउटलेट्स मिठापुर में खोला। इसमें पूरे परिवार का सपोर्ट रहा। मेरा कॉन्सेप्ट एकदम क्लियर थे कैसे हम मिडिल और लोअर मिडिल क्लास को अपने पास ला सकते हैं। प्लांड वे में प्रोडक्ट और प्रोजेक्ट दोनों को तैयार किया। मेरा मॉडल हिट हुआ। पत्नी का इसमें सपोर्ट मिला और पहले ही साल में हमलोगों को धंधे में 8-9 करोड़ रुपए का फायदा हुआ। 2023 में पटना में ही दो नए स्टोर खोले। 2024 में पटना के ही अलग-अलग इलाके में फ्रेंचाइजी मोड में ही 5 नए स्टोर खोले। फ्रेंचाइजी मॉडल पर ही आने वाले दिनों में बहुत जल्द 3-4 जिले में 5 नए स्टोर खुलने वाले हैं। मेरी कोशिश है कि देश के हर जिले में शांतिलाल्स का अपना स्टोर हो। यही मेरा विजन और मिशन है। शांतिलाल्स के माध्यम से आज मैं 500 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा हूं। साढ़े 3 साल में मेरी कंपनी का सालाना टर्न ओवर लगभग 25 करोड़ रुपए का है। ——————- ये भी पढ़ें… ‘लोग कहते थे गोरी होती तो ज्यादा सुंदर लगती’: पटना की इशित यामिनी दुनियाभर में मॉडलिंग का चेहरा, बोलीं-चमड़ी के रंग से कोई सुंदर नहीं होता ‘बहन जब पैदा हुई तब दूध सी गोरी थी। मैं उसके एकदम उल्ट। बचपन से सुनते आई हूं कि नैन-नक्श तो अच्छे हैं लेकिन थोड़ी गोरी होती बहुत सुंदर लगती। हालांकि, मेरे मां-बाप ने कभी मेरी बहन और मुझमें फर्क नहीं किया।’ ‘आसपास तो कुछ लोग ऐसे थे जो बड़े प्यार से मुझे ये कहकर निकल जाते कि गोरी होती तो अच्छा होता। ये सब सुनते-सुनते लाइफ में एक ऐसा समय भी आया, जब मेरे मन में आने लगा था कि काश मैं गोरी होती। पूरी खबर पढ़िए