कार में 2 निर्वस्त्र लाश मिलीं, पुलिस बोली-सेक्स करते-करते मरे:राबड़ी के भाई साधु फंसे तो जांच के लिए खून नहीं दिया; लड़की के भाई का अपहरण

दैनिक भास्कर की इलेक्शन सीरीज ‘अपहरण’ के चौथे एपिसोड में आज शिल्पी-गौतम हत्याकांड और उसके भाई प्रशांत के अपहरण की कहानी….. 1999 का साल। राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं। 27 साल का एक लड़का गौतम सिंह, राजनीति बदलने का सपना देख रहा था। पटना के बोरिंग रोड इलाके में उसका दो मंजिला घर था। उसके पिता बीएन सिंह, मां, और छोटी बहन, सभी लंदन में रहते थे। वे बेटे को भी साथ ले जाना चाहते थे, लेकिन गौतम ने साफ मना कर दिया था- ‘मुझे यहां कुछ करना है, पापा। राजनीति में आना है। बिहार को बदलना है।’ बीएन सिंह फोन पर कई बार समझाते, ‘बेटा, यहां जिंदगी आसान है। वहां कौन तुम्हारी सुनेगा? राजनीति में सब गंदगी है।’ गौतम हर बार एक ही बात कहता, ‘गंदगी को साफ करने वाला भी कोई होना चाहिए पापा।’ उसका सपना था- नेता बनना। शुरुआत में वह छात्र संगठनों में सक्रिय रहा। अखबारों में कभी उसका नाम छोटे नोटिस में छप जाता- ‘युवा नेता गौतम सिंह ने कॉलेज के छात्रों की समस्या पर ज्ञापन दिया।’ यही नोटिस उसकी उम्मीद को और बढ़ा देते थे। गौतम ने सुना था कि अगर किसी से राजनीतिक रास्ते खुल सकते हैं, तो वो नाम है- साधु यादव। मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के भाई। किसी परिचित के जरिए साधु यादव से उसकी मुलाकात हुई। गौतम सिंह को उम्मीद थी कि साधु यादव के जरिए उसे राजनीति में एंट्री का मौका मिलेगा, पर ऐसा नहीं हुआ। पहली बार जब वह 10 सर्कुलर रोड वाले बंगले में गया, तो वहां नेताओं की भीड़ थी- किसी के हाथ में फूल, किसी के हाथ में लेटर। गौतम वहीं खड़ा रहा, पसीने से भीगा, अपनी फाइल थामे हुए। थोड़ी देर में एक आदमी बोला, ‘भाई साहब व्यस्त हैं, जल्दी बोलो क्या चाहिए?’ गौतम बोला, ‘नाम गौतम सिंह है। राजनीति में काम करना चाहता हूं। गांव-देहात में संगठन बना रहा हूं।’ उस आदमी ने झट से जवाब दिया, ‘सब चाहते हैं राजनीति में आना। पहले कुछ करके दिखाओ।’ गौतम का चेहरा उतर गया, लेकिन उसने हार नहीं मानी। वो बार-बार जाता, छोटी-छोटी रैलियों में भीड़ जुटाता, तस्वीरें खिंचवाता। धीरे-धीरे साधु यादव उसे पहचानने लगे। वह एक दिन फिर साधु यादव से मिलने पहुंचा। उस दिन साधु ने हंसते हुए कहा, ‘तू बड़ा जिद्दी है रे गौतम। बाकी सब दो बार में गायब हो जाते हैं, तू बार-बार चला आता है।’ गौतम मुस्कुराया, ‘सर, बस एक मौका चाहिए। काम करके दिखाऊंगा।’ साधु ने हल्के से सिर हिलाया, ‘देखते हैं, वक्त आने पर याद रखेंगे।’ यही ‘देखते हैं’ गौतम के लिए उम्मीद बन गया। वो समझ बैठा कि अब दरवाजा खुलने वाला है। 3 जुलाई, 1999, नीले सूट में, कंधे पर बैग टांगे शिल्पी जैन रिक्शे पर बैठकर कोचिंग के लिए निकल रही थी। शिल्पी ‘मिस पटना’ रह चुकी थी। वह गौतम की दोस्त थी। रिक्शा अभी उसके घर के कनाल रोड के मोड़ पर पहुंचा ही था कि पीछे से एक सफेद मारुति कार धीरे-धीरे पास आई। अंदर से एक जानी-पहचानी आवाज आई- ‘अरे शिल्पी! रिक्शे में क्यों? मेरी गाड़ी में बैठो, छोड़ देता हूं।’ वो गौतम सिंह का दोस्त था। शिल्पी को गौतम पर भरोसा था और उसके दोस्तों पर भी। ‘अच्छा, बस पास तक छोड़ देना’, उसने मुस्कुराते हुए कहा और रिक्शा रुकवा दिया। वो कार में बैठ गई। शुरुआत में सब सामान्य था- कार उसी दिशा में बढ़ी, जहां शिल्पी की कोचिंग थी, लेकिन कुछ मिनट बाद, उसने देखा कि रास्ता बदल गया है। गाड़ी अब शहर से बाहर की तरफ मुड़ चुकी थी। ‘ये रास्ता तो नहीं है मेरे इंस्टीट्यूट का…?’, उसने हैरान होकर पूछा। बगल में बैठा गौतम का दोस्त मुस्कुराया, बोला- ‘अरे, घबराओ मत। वाल्मी गेस्ट हाउस चल रहे हैं। गौतम वहीं है, उसने बुलाया है। कुछ जरूरी बात करनी है।’ शिल्पी चुप हो गई। गौतम का नाम सुनकर उसे पलभर को सुकून हुआ- सोचा शायद कोई सरप्राइज देना चाह रहा हो, लेकिन मन के अंदर कहीं एक बेचैनी भी थी, जो धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। गाड़ी अब गांधी मैदान पार कर चुकी थी, और शहर की हलचल पीछे छूट चुकी थी। सामने सुनसान सड़कें और बिखरे हुए पेड़ों की परछाइयां थीं। दूर एक बोर्ड दिखा- ‘वाल्मी गेस्ट हाउस’. गेट पर गार्ड ने बिना कुछ पूछे गाड़ी अंदर जाने दी। जैसे किसी ने पहले से बता रखा हो कि कौन आने वाला है। गाड़ी रुकी। शिल्पी उतरी- हाथ में पर्स था, चेहरे पर सवाल। ‘गौतम कहां है?’ उसने पूछा। ‘अंदर,’ दोस्त ने कहा और आगे बढ़ गया। गेस्ट हाउस की दीवारें पुरानी थीं, पंखे की आवाज गूंज रही थी और कमरों से आती शराब की गंध से माहौल अजीब लग रहा था। शिल्पी कुछ पल वहीं ठिठक गई। उधर, शहर में किसी कोने में गौतम सिंह को किसी ने बताया- ‘शिल्पी को वाल्मी गेस्ट हाउस ले जाया गया है।’ वो सन्न रह गया। ‘क्या?’ यह कहते हुए तुरंत वो अपनी गाड़ी में बैठा। उसे पता था कि उस गेस्ट हाउस में सिर्फ ‘पार्टी’ होती है। गौतम का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने जैसे ही गाड़ी गेस्ट हाउस के गेट के भीतर मोड़ी, एक चौकीदार ने बिना कुछ पूछे सलामी दी- जैसे किसी खास मेहमान का इंतजार हो। गौतम ने उसकी ओर देखा भी नहीं, बस दौड़ पड़ा सीढ़ियों की ओर। ऊपर पहली मंजिल के एक कमरे से हल्की चीख और झगड़े की आवाजें आ रही थीं- एक लड़की की, पहचान में आने वाली। ‘छोड़ दो मुझे! मत करो ये सब!’ गौतम की सांस रुक गई। वो दरवाजे की ओर भागा। दरवाजा आधा खुला था। अंदर झांका- और जो देखा, उससे उसकी रगों का खून जम गया। कमरे में शिल्पी थी- उसके कपड़े आधे फटे हुए, चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ। चारों तरफ कुछ लोग खड़े थे- वही चेहरे, जिन्हें गौतम अक्सर अपने साथ राजनीति के दांव-पेच में देखता था। वो लोग अब जानवर बन चुके थे। गौतम ने चिल्लाकर कहा, ‘रुको! छोड़ दो उसे!’ लेकिन उसकी आवाज उनकी गंदी हंसी में गुम हो गई। उसने झपटकर शिल्पी की ओर बढ़ने की कोशिश की, मगर पीछे से किसी ने उसे पकड़ लिया। ‘बहुत हीरो बन रहा है?’ उसने कहा। और अगले ही पल, पहला मुक्का उसके चेहरे पर पड़ा। गौतम लड़ने की कोशिश करता रहा, पर हर तरफ से लातें और घूसे पड़ने लगे। वो बार-बार गिरता, उठता, फिर गिरता। सामने, वही लोग शिल्पी के साथ दरिंदगी करते रहे- और वो कुछ नहीं कर पाया। कमरा अब कराहों और चीखों से भर गया था। शिल्पी की आवाज धीमी पड़ रही थी। गौतम की सांसें टूटने लगी थीं। किसी ने पास रखे गिलास में कुछ मिलाया- कोई कड़वी-सी चीज, शायद जहर। ‘अब बहुत देख लिया इसने…’किसी ने कहा, और वो गिलास जबरन गौतम के मुंह में उड़ेल दिया गया। थोड़ी देर बाद वही गिलास शिल्पी के होठों पर लगाया गया। वो बेहोश हो चुकी थी। कमरे में सन्नाटा छा गया। सिर्फ पंखे की आवाज रह गई। दो लोग फर्श पर पड़े थे- एक राजनीति के सपनों में खोया युवक और दूसरी एक लड़की, जिसने बस प्यार किया था।… लोगों की चर्चाओं के आधार पर तब के अखबारों में ऐसा ही छपा था। उधर, पटना के एग्जिबिशन रोड में शिल्पी की मां बार-बार दरवाजे की ओर देखतीं और कहतीं- ‘शायद कोचिंग का क्लास लंबा हो गया होगा…पिता उज्ज्वल की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। उन्होंने फोन उठाया- पहले शिल्पी की कोचिंग में, फिर उसके दोस्तों के घर। हर तरफ से एक ही जवाब- ‘नहीं अंकल, वो तो दोपहर में ही निकल गई थी।’ अब दिल में डर बैठ गया। उन्होंने नौकर से कहा, ‘बाइक निकालो, चलो।’ बाइक दौड़ पड़ी- पहले कोचिंग सेंटर, फिर रास्ते के चौराहे, फिर हर वो जगह जहां शिल्पी रोज दिखाई देती थी। कुछ पता नहीं चला। रात के 8 बजे उज्ज्वल थककर गांधी मैदान थाने पहुंचे। ‘साहब, मेरी बेटी सुबह कोचिंग गई थी… अब तक नहीं लौटी’, उन्होंने कांपती आवाज में कहा। ड्यूटी ऑफिसर ने सिर उठाकर देखा- ‘नाम?’ ‘शिल्पी जैन।’ अधिकारी ने तुरंत रजिस्टर खोला, कलम उठाई और गुमशुदगी का केस दर्ज कर लिया। साथ ही वायरलेस पर संदेश भेजा गया- ‘लड़की उम्र 23, आखिरी बार बोरिंग रोड के पास देखी गई थी, सफेद मारुति कार में…’ रात 8:30 बजे तक पुलिस को सूचना मिल चुकी थी कि उस मारुति को फुलवारी शरीफ के पास देखा गया था। थाने से एक जीप और दो मोटरसाइकिलें निकल पड़ीं। साधु यादव के गैराज में मिली शिल्पी-गौतम की नग्न लाश इस दौरान वायरलेस पर लगातार मैसेज गूंज रहे थे- ‘लड़की की गुमशुदगी… लड़के की गाड़ी… MLA क्वार्टर के पास देखी गई…’ थोड़ी ही देर में पुलिस साधु यादव के क्वार्टर के बाहर पहुंची। वहां कुछ लोग जमा थे- कुछ चौकीदार, कुछ स्थानीय लोग। फुलवारी शरीफ के उस पुराने MLA क्वार्टर के पीछे एक गैराज था- आधा टूटा-फूटा, जिसमें अक्सर सफेद गाड़ियां पॉलिश होती थीं। इसके भीतर से पेट्रोल और धुएं की तेज गंध आ रही थी। थानेदार ने टॉर्च जलाया और धीरे से अंदर कदम रखा। पहली नजर में लगा, कोई हादसा हुआ है, लेकिन जैसे ही रोशनी वहां खड़ी कार के भीतर पड़ी- सबके होश उड़ गए। सामने सफेद मारुति कार खड़ी थी। अंदर दो शव पड़े थे- गौतम सिंह और शिल्पी जैन के। गौतम के शरीर पर सिर्फ पैंट थी। बगल में शिल्पी पड़ी थी- उसके ऊपरी हिस्से पर सिर्फ एक टी-शर्ट थी, जो साफ तौर पर गौतम की थी। बाकी कपड़े गायब थे। थानेदार कुछ पल के लिए चुप रहा, लेकिन इससे पहले कि पुलिस और जांच करती, एक जोरदार शोर उठा- गेट के बाहर कुछ गाड़ियों की हेडलाइटें चमक उठीं और भीड़ उमड़ आई। एक गाड़ी के बाहर से भारी आवाज सुनाई दी- ‘क्या हो रहा है यहां? वो साधु यादव थे। सफेद कुर्ता, लाल गमछा और पीछे समर्थकों का हुजूम। पुलिस वालों ने झटपट सलाम ठोका। थानेदार कुछ कहने ही वाला था कि साधु ने इशारे से बात रोक दी। ‘लाश मिली है?’ थानेदार ने सिर झुका लिया, ‘जी… कार में…’ साधु कुछ पल कार की ओर देखते रहे। ‘जांच करो… जो करना है, करो’, उन्होंने कहा, और पीछे हट गए। अब गैराज के भीतर सिर्फ पुलिस थी और दो बेजान जिस्म। पुलिस ने कार का दरवाजा खोला और दोनों को बाहर निकाला। एक पुलिस वाले ने धीरे से कहा, ‘गाड़ी को थाने ले चलते हैं।’ ‘लेकिन सर, फिंगरप्रिंट्स…’थानेदार ने डांट दिया, ‘ज्यादा दिमाग मत लगाओ।’ गाड़ी स्टार्ट की गई और थाने ले जाई गई- उसी वक्त दोनों के शरीर भी पोस्टमॉर्टम के लिए भेजे गए। रात के साढ़े 9 बज चुके थे। मीडिया के कैमरे पहुंच चुके थे। एक रिपोर्टर ने अफसर से पूछा, ‘साहब, ये मर्डर है या एक्सीडेंट?’ अफसर ने कहा- ना, ना, आत्महत्या लग रही है।’ ‘लेकिन पोस्टमॉर्टम तो हुआ नहीं अभी?’ ‘हम इतने केस देख चुके हैं कि पहली नजर में समझ जाते हैं मौत कैसे हुई।’ अफसर ने जवाब दिया, और किसी को भी अंदर जाने से रोक दिया। रात गहराती गई। पोस्टमॉर्टम उसी रात किया गया, जल्दबाजी में, बिना परिजनों की मौजूदगी के। रात में ही गौतम का अंतिम संस्कार कर दिया गया। द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस ने शुरुआती जांच बताया कि शिल्पी और गौतम की मौत सेक्स के दौरान हुई है। कार बंद थी। एसी ऑन था। संबंध बनाने के दौरान उन्हें घुटन होने लगी। कार में कार्बन मोनोऑक्साइड गैस फैल गया। दम घुटने की वजह से दोनों की मौत हो गई। इसी दौरान SP सिटी भाटिया पर आरोप लगे कि वह मामले में दखल दे रहे हैं और उनका मकसद मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के भाई साधु यादव को बचाना था। ये खबर जैसे ही बाहर आई, विपक्ष ने सड़क पर प्रदर्शन शुरू कर दिया। पटना की गलियां नारों से गूंज उठीं- ‘साधु यादव को नहीं बख्शा जाएगा!’ राबड़ी देवी पर दबाव बढ़ा। आखिरकार, सितंबर 1999 में मामला CBI को ट्रांसफर कर दिया गया। साधु यादव ने DNA जांच के लिए CBI को खून नहीं दिया CBI ने जब अपनी जांच शुरू की तो शिल्पी के कपड़ों की फोरेंसिक जांच के लिए हैदराबाद स्थित सेंट्रल फोरेंसिक लैब (CFSL) भेजा था। अपनी रिपोर्ट में CFSL ने स्पष्ट कर दिया था कि कपड़ों पर एक से अधिक व्यक्ति के स्पर्म होने के एविडेंस मिले हैं। यानी शिल्पी की मौत से पहले उसके साथ कई लोगों ने बलात्कार किया था। CBI ने साधु यादव की डीएनए जांच के लिए उनसे खून मांगा। साधु यादव ने इनकार कर दिया। उनका जवाब था, ‘मेरा खून? इसका क्या मतलब?’ तीन साल बाद CBI ने पुलिस की जांच को सही बताया सितंबर 1999 से 2004 तक CBI की टीम ने पटना और फुलवारी शरीफ की गलियों में हर तरह की छानबीन की। तीन साल की लंबी जद्दोजहद के बाद CBI ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में दावा किया कि यह हत्या का मामला नहीं था, बल्कि शिल्पी और गौतम ने जहर खाकर अपनी जान दी। 2006 में घर के बाहर रात में प्रशांत का किडनैप उधर, शिल्पी के भाई प्रशांत जैन इस फैसले के खिलाफ थे। वह केस को सुप्रीम कोर्ट में ले जाना चाहते थे। 8 जनवरी 2006 की रात लगभग 10:15 बजे वो अपनी दुकान से बुद्ध मार्ग स्थित अपने घर स्कूटर से पहुंचे थे, तभी एक सफेद मारुति कार अचानक उनके पीछे आई। कार धीरे-धीरे आकर उनके पास रुकी और खिड़की सरकते ही अंदर से कुछ चेहरे झांकने लगे। कार से बाहर आकर कुछ लोगों ने अचानक उन्हें पकड़ लिया। स्कूटर गिरा, सड़क पर धूल उड़ गई। प्रशांत ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ से हाथ-पांव मारते हुए उन्हें जबरन कार में डाल लिया गया। कार तेजी से शहर की अंधेरी गलियों में गायब हो गई। घर वाले तुरंत सड़क पर पहुंचे। स्कूटर वहीं सड़क पर पड़ा था। बेटी की हत्या के बाद अब बेटे के अपहरण से वे घबरा गए थे। वे तुरंत थाने पहुंचे और एफआईआर दर्ज कराई। पटना पुलिस तुरंत सक्रिय हो गई। पटना एसएसपी और नालंदा एसपी ने एक विशेष टीम बनाई गई, जिसमें सीआरपीएफ और एसटीएफ के जवान भी शामिल थे। डीजीपी एआर सिन्हा, पटना जोन के आईजी राजवर्धन शर्मा और आईजी वर्मा खुद बख्तियारपुर में डेरा डाले हुए थे। अब तक फिलहाल प्रशांत का कुछ पता नहीं चला। रात में, बख्तियारपुर के दियारा और ताल इलाकों में कई जगहों पर सर्च अभियान शुरू हुआ। पुलिस वाले हर खेत, झाड़ी और सुनसान रास्ते की तलाशी ले रहे थे। हर दरवाजे पर दस्तक दी गई, हर कोने में नजर डाली गई, लेकिन कोई सुराग नहीं लगा। इस दौरान पुलिस टीम ने प्रशांत का अपहरण करने वालों और पीड़ित का सुराग ढूंढने के लिए खोजी कुत्ता लगाया। कुत्ता प्रशांत के कपड़े सूंघने के बाद ताल इलाके की ओर बढ़ गया, जिससे संकेत मिला कि प्रशांत को उधर ही ले जाया गया है। जबकि कुछ अपराधियों को दियारा इलाके की ओर जाने का संकेत दिया। उसके बाद पुलिस ने दियारा और ताल इलाके में छापेमारी शुरू कर दी। इस दौरान वहां मीडिया की टीमें भी पहुंच गईं। एक अधिकारी ने बताया, ‘कुत्तों ने जो ट्रैकिंग दिखाई है, उससे लगता है कि आरोपी जान बचाने के लिए भाग गए हैं। प्रशांत का सुराग फिलहाल अभी नहीं मिला है।’ दो हफ्ते बाद प्रशांत को अपहरणकर्ताओं ने छोड़ दिया लगभग दो सप्ताह बाद, 17 जनवरी 2006 की सुबह पुलिस को अचानक सूचना मिली कि प्रशांत जैन को अपहरणकर्ताओं ने छोड़ दिया है। सीनियर पुलिस अधीक्षक कुंदन कृष्णन तुरंत मौके पर पहुंचे और प्रशांत को सुरक्षित थाने लेकर आए। उन्होंने मीडिया से कहा- ‘हमारी टीम प्रशांत जैन को सुरक्षित वापस ले आई है, उन्हें किसी तरह की चोट नहीं लगी है।’ उसके बाद पुलिस प्रशांत को वापस उनके घर लेकर गई। प्रशांत के चेहरे पर थकान और डर के निशान साफ दिख रहे थे। परिवार वालों ने उन्हें गले लगाया। पत्नी और बहन की आंखों में आंसू थे। मीडिया के लोग भी पहुंच गए। पत्रकारों ने प्रशांत से सवाल किया- ‘आपका अपहरण करने वाले कौन लोग थे? क्यों अपहरण किया था? लेकिन प्रशांत ने सिर्फ इतना कहा- ‘मैं अब इस मामले की जांच नहीं कराना चाहता। मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहना। पहले की तरह सामान्य जिंदगी जीना चाहता हूं।’ हालांकि प्रशांत तो सुरक्षित आ गए, लेकिन सवाल बाकी थे- कौन थे ये अपहरणकर्ता, उनका मकसद क्या था और इतनी बड़ी योजना के पीछे कौन खड़ा था? प्रशांत जैन के अपहरण से नीतीश सरकार पर उठे सवाल 2006 की मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, जब प्रशांत जैन का अपहरण हुआ, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे राज्य सरकार की क्षमता और कानून-व्यवस्था पर एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार किया। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, उन्होंने साफ तौर पर कहा कि पुलिस ‘ईमानदारी से प्रयास कर रही है’। उसी रिपोर्ट में यह भी है कि उन्होंने यह जोड़ा कि यदि लोग अपहरण की बात करते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि पुलिस ने कई अपहरणों को पहले भी कामयाबी से सुलझाया है- एक तरह से यह इशारा कि उनका दावा है कि सरकार पहले भी कानून-व्यवस्था की चुनौतियों से निपट चुकी है। (इस रिपोर्ट को क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए लिखा गया है।)

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